हमसे कोई पूछता है कि आप भगवान में विश्वास रखते हैं तो हम फ़टाक से हां या ना में जवाब दे डालते हैं । लेकिन अगर थोड़ा सोचा जाए कि यह हाँ और ना कहाँ से आती है तो हम पायेंगे की यह इक बहुत गहरी कंडीशनिंग का परिणाम है। हजारों सालों की कंडीशनिंग।

बिना सवाल का असली मतलब जाने हम पहले से सोचा हुआ जवाब हर बार देते हैं। क्या हमने कभी सोचा की ये भगवान आखिर चीज़ क्या है?

क्या दीवार पर स्तिथ वो तस्वीरें, जो की जब से हमने जन्म लिया है वहीं की वहीं हैं, भगवान हैं? क्या भगवान इतना मृत वय्क्ति है जो की घर से बाहर निकल कर साँस लेने तक का इच्छुक नही है? क्या आपको इस भगवान में से दुर्गन्ध नहीं आती? मुझे तो आती है।

लेकिन मैं यह मानने को क़तई तय्यार नहीं कि भगवान इतना मृत, बाँसी और दुर्गन्ध से भरा हो सकता है। मैं जिस भगवान को जानता हूँ और पूजता हूँ उसका एक ख्याल मात्र ही जगत भर को सुगंधित कर देता है। तो फिर क्या फ़र्क़ है मेरे भगवान में और उस भगवान में जो कि सदियों से हमारी दीवारों, छतों, फ़र्शों और मंदिरों की शोभा बढ़ाता चला आ रहा है?

मेरे ख़याल से फ़र्क़ केवल इतना है कि मेरा भगवान मेरे भीतर रहता है और वह दीवारों पर स्थित समाजिक भगवान केवल बाहरी दुनिया तक ही सीमित है, एक दिल को तसल्ली देने की वस्तु मात्र है। मेरा भगवान चौबीसों घंटे मेरे साथ है। मुझे उसके दर्शन हेतु कहीं आने जाने की ज़रूरत नहीं। मेरी चमड़ी की तरह वह मुझसे लिपटा है। मेरी सांसों में बहता है। ऐसा मानो कि वो जैसै मैं ही हूँ। फ़र्क़ करना न केवल मुश्किल पर बेमानी भी होगा। इतना क़रीब है मेरा भगवान मेरे। केवल ध्यान का बटन दबाने की देरी है कि वह ख़ुद को आनन्द एवं आपार ख़ुशी के रूप में प्रस्तुत कर देता है।

यही तो है भगवान, आनन्द और ख़ुशी का दूसरा नाम। ख़ुद के भीतर को देखना, समझना और जानना ही भगवान है। इसी मनसा के साथ दुनिया के सभी धर्मों की स्थापना हुई। जितना हम उसे बाहरी दुनिया में ढूँढने की कोशिश करेंगे, उतना ख़ुद को भगवान से दूर पायेंगे। यही होता चला आया है सदियों से। आज हमारे माता-पिता, अध्यापकों एवं समूचे समाज के पास इस बात का कोई जवाब नहीं कि वे क्यों इन अनदेखे, अनजाने एवं अजीब क़िस्म के सुने सुनाये विरासत में मिले भगवानों के पीछे लगे हैं। इनमें से आज तक तो कभी न कोई दिखा है और न कोई नीचे उतरा है।

केवल डर के अलावा मुझे हमारी साधारण पूजा एवं मानता में कुछ नहीं दिखता। इस बनावटी सुविधाजनक भगवान ने हमें दुख के अलावा कुछ नहीं दिया है। समूची मानव जाती को कठोर, दुखी एवं नपुंसक बना दिया है। आपाहिज की तरह हम इस पर निर्भर हैं। हमारा यह भगवान हमें दुख, दर्द, पीढ़ा एवं डर के अलावा कुछ और दे भी नहीं सकता क्योंकि इसका खु़द का जन्म ही दुख एवं डर की कौक से हुआ है।

किसी को डराना हो तो भगवान का नाम ले दो काफ़ी रहेगा। हिंदुस्तान में तो जनता ने भगवान का बुद्धिमानता के साथ उन लोगों को डराने के लिये फायदा उठाया जो कि पब्लिक दीवारों को पब्लिक यूटिलिटि की तरह इस्तेमाल करते हैं। पूरी दीवार पर अब भगवान का वास होता है!

हमें मिलकर भगवान की परिभाषा बदलनी होगी। वह दिन दूर नहीं जब हमारे बच्चे हमसे पूछेंगे हमारी पूजा एवं भक्ति का सार एवं स्रोत। वे ज़रूर पूछेंगे कि भगवान क्या है, कौन है, कहाँ है, और हमारे पास और कोई चारा नहीं होगा उनको गुमराह करते हुए एक बार फिर उस दीवार पर टँगी हुई तस्वीर की तरफ़ इशारा करने के अलावा।

जो भगवान हमें दिन रात पुकारता है, हमें एक पल में संपूर्ण जगत की ख़ुशियाँ देने का वादा करता है, और तो और ख़ुद ही भगवान बनने का सुनहरी मौक़ा देता है, कहाँ की समझदारी है कि हम ऐसे भगवान को छोड़, पत्थरों एवं मुरदा तस्वीरों के पीछे दौड़ अपना क़ीमती वक़्त जा़़या करें?

एक बात तो तय है कि जब तक हम इस नक़ली के भगवान से अपना पीछा नहीं छुड़ायेंगे तब तक ख़ुशी हमसे और हम ख़ुशी से कोसों दूर रहेंगे। थोड़ी सी समझदारी एवं मेहनत हमारे कईं जन्मों की पीढा़ का निवारण कर सकती है ओर हमें सदैव आनंदमयी बना सकती है। आज ही चयन कीजिये, नदी या नाला?