ख़ुद की हँसी अंजान सी लगी!
ख़ुद की हँसी की आवाज़ आज कानों को अंजान सी लगी
इक बार फ़िर ज़िन्दगी मुझ पर होती महरबान सी लगी
प्यासी धरती पर जैसे गिरा वर्षा का रुनझुन पानी हो
खु़दा से जैसे आज मिलि इजाज़त करने की मनमानी हो
चलो खुल कर तबीयत से आज जी लेते हैं यारों
ये मौसम, ये ख़ुमारी जो आज अपनी है क्या मालूम कल फिर अंजानी हो!
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