क्या मैं अक्स हूँ?
नकलीपन की मोटी से मोटी परत से ढकने के बावजूद ये अन्दर लगा आईना सच्चाई दिखाने से बाज़ नहीं आता ।
कितने मुखौटे बदले लेकिन हर बार इसकी ये मज़ाक़ उड़ाती हँसी सब कुछ कह जाती है ।
कहता है कि यह मुझे मुझ से भी पहले से जानता है, कईं जन्मों से जानता है ।
पर इन मुखौटों से जैसे कुछ लगाव सा हो गया है । चेहरे से ऐसे चिपक गये हैं कि हटाने पर होने वाले दर्द को सोच कर कंपकपी सी उठती है । पर असलियत से दूर भागना भी तो समझदारी न होगी!
सोचता हूँ कि जैसे दो गाड़ियाँ रख ली जाती हैं वैसे दो चेहरे रख लिये जाएँ । बस ख़ुद को पता रहेगा कि कब गाड़ी असली है और कब नक़ली । किसका कब कितना कैसे और कहाँ इस्तेमाल करना है अपने बस में हो जाएगा ।
आईना भी ख़ुश रहेगा और अक्स भी!
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